दो साल पहले निकली थी मैं ,
दिल में कुछ सपने , आंखों में नमी ।
नया सफर , अनजाना गांव ,
पर सीने में था बस सेवा का भाव ।
कंधों पर बोझ न कोई था ,
बस सीखने का शौक संजोए था ।
जहां जरूरत थी , वही रुकीं।
हर धड़कन से मैं, धीरे-धीरे जुड़ी।
फर्श पर बैठी , बच्चों संग गाई,
कभी मन ही मन चुपके से रो आई ।
मिट्टी की गंध वह चौपाल की बात।
बना दी इस यात्रा को खास ।
औरत तो के आंखों में थी आग ,
कुछ कहती नहीं, पर थी निडर बेहिसाब ।
उनसे सीखा हिम्मत क्या होती है ,
चुप्पी में भी आवाज़ क्या होती है।
मैं सीखाने गई थी शायद ,
पर खुद उनसे बहुत कुछ सीख आई।
हर महिला, हर बच्ची का हाथ थामा ,
उनके ख्वाबों में मैं भी बन गई एक नाम ।
बदलाव बड़ा नहीं पर सच्चा था,
हर छोटी कोशिश में सवेरा था।
कभी कार्यक्रम ,कभी रंगोली,
हर पल में छुपी थी एक नई टोली।
दूर से आई थी पर घर बना,
गांव की गलियों ने मुझको अपना कहा।
अब जब ये दो साल हो चले पूरे ,
दिल कहता है ये रिश्ते ना हो अधूरे।

