We recently completed our 5th training & Travel Workshop in Bhuj, Gujarat, where we explored various organizations and artisans. As we navigated through the intricate and narrow lanes, a memory surfaced something my Nana (grandfather) used to say:
“Jitni choti aur tang galiyon se guzarna pade, samjho utne hi mahaan kalakaar se milne ja rahe ho.”
At that moment, I wondered, had he been here before? Had he walked these very lanes, met these artisans, and witnessed their craft? Or was it just wisdom passed down through generations, a truth that art and hardship often go hand in hand? Inspired by this thought and my journey through Bhuj, I penned a poem, trying to uncover the meaning behind his words and imagining if he, too, had once walked these paths.
बहादुर भुज…
नाना सोचते होंगे भुज क्यों याद आता है बार-बार,
शायद इस लिए कि वह है बहादुर, अटूट, एक अटल दीवार।
वह शहर जो कभी कांपता था धरती के झटकों से,
आज भी खड़ा है, अपनी कहानी लिखता, नए सपनों से।
शायद किसी दिन वह घूमे हों बन्नी के मैदानों में,
देखा हो सहजीवन का सपना, पशुओं के अरमानों में।
ज़मीन जो रजिस्टर न हो सकी, पर कंपनी खड़ी हो गई,
और लोग अब भी न्याय की आग में तप कर खड़े है़ं|
शायद वह गए होंगे कच्छी महिलाओं के बीच,
जो अपनी पीड़ित बहनों के हाथों में थमा रही हैं शक्ति की रीत।
या बैठे होंगे अज़ीम भाई के साथ किसी शाम,
जहाँ HIC की आग से जल रहा हो हक़ का दिया बेधड़क।
धोलावीरा के इन-हाउस फूडिंग होम्स ने भी कुछ सिखाया होगा,
वह औरतें जो अपनी संस्कृति संभाल के चली हैं,
सशक्तिकरण का एक नया रूप दिखाया होगा।
मनीष जी के साथ सेतु अभियान का गीत गाया होगा,
सरकारी हाथ मिला कर कैसे दीवारें गिरती हैं, ये समझा होगा।
सखी संगिनी की महिलाओं के बीच, शायद देखा होगा,
कैसे अपने SHG के सपने से घरों में रोशनी आई है।
और कारीगर शाला के उस “imperfectly perfect” जहान में,
समझा होगा कि मेसोनरी और कारपेंट्री भी एक कला है।
हुनरशाला के चबूतरे पर बैठ, शायद सोचा होगा,
कैसे पुनर्वास होता है मनुष्य का, जब हुनर साथी होता है।
या वह चले गए होंगे उन गलियों में जहाँ कलाकार हैं,
दुनिया की चकाचौंध से परे, अपनी धरोहर में अटल हैं।
और एक दिन वह जा बैठे होंगे किसी नुक्कड़ या मंडली के पास,
जिन्होंने कहा होगा— “याद है वह 26 जनवरी 2001 का दिन?”
जब धरती हिल गई थी, 7.7 की थर – थर से,
मगर भुज खिला, एक फूल की तरह, मिट्टी की खुशबू से।
नाज़ुक होकर भी वह बहादुर है, हर दुख को सहकर,
भुज सिर्फ एक जगह नहीं, एक जज़्बा है, एक नया सफर।
हर ज़ख्म पर मरहम लगा, हर पत्थर पर नया सपना छपा,
इसीलिए शायद भुज की सोचते हैं, हर पल, हर घड़ी, हर रात।
