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ऑटिज़म के साथ मेरा अनुभव – स्वीकृति से समावेशन तक का सफर

लगभग 4 साल हो गए ऑटिज़म को जाने समझे। शहरी क्षेत्र से लेकर ग्रामीण क्षेत्र तक इन चार सालों में मैंने मेडिकल मॉडल से लेकर सोशल मॉडल को बेहद करीब से परखा है। यह अनुभव मुझे ऑटिज़म जैसे बौद्धिक एवं विकासात्मक दिव्यांगता के विषय में पढ़ाई करके,खुद से खोज-बिन करके और साथ हीं ऑटिज़म जैसे बौद्धिक एवं विकासात्मक दिव्यांगता के लिए काम कर रहे संस्थाओं के साथ काम करके प्राप्त हुआ।

ऑटिज्म एक ऐसी स्थिति है, जो किसी व्यक्ति के सामाजिक कौशल, संचार और व्यवहार को प्रभावित करता है। एक माता -पिता के लिए उनके बच्चे से बढ़ करके कुछ भी नहीं है इस संसार में । तकरीबन 9 माह से मैं महाराष्ट्र में स्थित रायगढ़ जिले के ग्रामीण क्षेत्र में ऑटिज़म जैसे बौद्धिक एवं विकासात्मक दिव्यांगता पर काम कर रहा हूँ । ग्रामीण क्षेत्र प्रायः ऐसा क्षेत्र जो शहर से दूर हो ,यानि गाँव।हर एक माता -पिता की कामना होती है कि उनका बच्चा सुरक्षित रहे और अपने जीवन में आगे बढ़े। ऑटिज्म की स्थिति उनके लिए एक नया अनुभव होता है ,उन्होंने पहले कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी होती है। एक माता-पिता के लिए यह अनुभव काफी पीड़ा दायक होता है । हर एक माता -पिता अपने बच्चे के लिए एक सुखी जीवन की कामना करते हैं। इसे पूरा न होता देख माता – पिता की चिंता बढ़ने लगने लगती है।बच्चे के उम्र के साथ-साथ एवं बच्चे की यह स्थिति देख माता- पिता की चिंता दोगुनी होती चली जाती है। एक माता-पिता हर वो एक इंसान तक पहुचने की कोशिश करते हैं जो उनको रास्ता दिखा दे, यह बोल दे कि बच्चे को कुछ नहीं है और यह कुछ सालों में ठीक हो जाएगा।लेकिन अन्तः मन में बच्चे की स्थिति उन्हें परेशान करती रहती है । डॉक्टर कहते हैं सभी  टेस्ट रिपोर्ट सही है ,घर के लोग कहते हैं अरे उनका बच्चा भी देरी से बोला था ,ऐसे हीं चंचलता थी उसमें ।आस- पड़ोस के लोग सनसनी निगाहों से देखते हैं। माता-पिता नहीं चाहते की आस-पड़ोस के लोग उनके बच्चे को ऐसे देखे या ऐसे सवाल करे जिससे लगे कि उनका बच्चा बाकीं बच्चों से अलग है ।आंगनवाड़ी में उनका बच्चा बाकीं बच्चों के साथ घुल-मिल नहीं पाता,स्कूल संभालने में असमर्थ्य होने लगती है । उन्हें स्पेशल स्कूल ले जाने की बात बतलाई जाती है ,वही स्कूल जहां “मति मंद” बच्चों की  पढ़ाई होती है । एक माता -पिता इस शब्द से घबराते हैं ,डरते हैं ,वो नहीं चाहते की कोई उनके बच्चे को “मति मंद” कहे या ऐसा कुछ कहे जैसे उनका बच्चा अलग हो । अंततः बच्चा घर पर ही रहने लगता है ।  

कई सारे सवाल मन को कचोटने लग जाते हैं, और कितनी हीं ऐसी दुविधाएं उत्पन्न होती है, जो उलझाने लगती है।
क्या मेरा बच्चा उसके बच्चे जैसा हो पाएगा !
क्या मेरा बच्चा बोल पाएगा !
क्या मेरा बच्चा चल पाएगा !
वह अपना सारा काम खुद से तो कर पाएगा न !

हमारे जाने के बाद इसको कौन देखेगा !
जवाब एक ही जगह आ कर ठहरती है .. ज़िंदगी कैसे चल पाएगी !

प्रत्येक बच्चे का विकास अलग तरह से और अलग तरीके से  होता है। आज हम सभी समावेशी समाज बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं ।एक समावेशी समाज वह है जहां सभी की भागीदारी को सुनीचीती की जा सके। समावेशन का अर्थ उस समुदाय में दिव्यांगता  से प्रभावित  बच्चों की आवश्यकताओं के अनुरूप उनके दृष्टिकोण और प्रथाओं को बदलने का कौशल है। यह आसान नहीं है ।समुदाय को अधिक समावेशी बनाने में हमें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जागरूकता की कमी ,गरीबी,संसाधनों की कमी समस्या का प्रमुख हिस्सा है लेकिन माता-पिता और अन्य हितधारकों के दृष्टिकोण और अपेक्षाओं को भी बदलने की जरूरत है। माता-पिता को दिव्यांगता से जुड़ी चली आ रही धारणाओं  को दूर करने और अपने बच्चों के लिए जरूरी कदम उठाने की आवश्यकता है।यह एक सफर है ,जहां सभी को साथ मिल कर आगे बढ़ने की आवश्यकता है ।

हम इसे एक उदहराह्न से समझ सकते हैं जैसे -बाग़ीचा ,जहां  हर एक प्रकार के पेड़-पौधे लगे होते हैं।,कुछ खुद खड़े होते हैं ,कुछ को थोड़ा सहारा चाहिए होता है।किसी को पानी देने की जरूरत होती है तो किसी को खाद। हम बाग़ीचे में लगे हर एक पेड़-पौधे को उन्हीं के जैसे समझने की कोशिश करते हैं। उनकी जरूरतों एवं आवश्यकतों के अनुरूप हम उन को सहारा देते हैं,और बागीचा का हर एक पेड़-पौधा विकास करता है। आम ,लौकी ,आलू ,गोभी इत्यादि। समुदाय भी वही बाग़ीचे  का पेड़-पौधा है। हम सभी की स्थितियां अलग-अलग होती हैं । हमें बस एक दूसरे की जरूरतों को समझने और आवश्यकतों के अनुरूप सहारा देने की जरूरत है,जैसे हम बाग़ीचे में लगे सभी पेड़-पौधों के लिए करते हैं । हर एक व्यक्ति विशेष अपने अनुसार विकसित होते हैं।जैसे केले से आम के स्वाद की कल्पना नहीं करते, बल्कि हम केले के स्वाद का भी आनंद लेते हैं,और आम के स्वाद का भी ।ऐसी हीं हम बागीचे में लगे हर एक पेड़-पौधे के लिए अपनी अपेक्षा रखते हैं । ठीक इसी प्रकार  हर एक व्यक्ति की अपनी अलग  काबिलियत एवं क्षमता है,और अपनी विशेषता है।

हमारी समग्र भूमिका यह है कि जो चीज दिव्यांगता से प्रभावित बच्चों को कठिन लगती है उसमें उन्हें सहायता देना है। हम अपनी भूमिका कैसे निभाते हैं इससे बच्चे पर बहुत फर्क पड़ता है। हमारी भूमिका केवल यह नहीं है कि दिव्यांगता से प्रभावित बच्चों के लिए क्या किया जाना चाहिए बल्कि यह भी है कि यह कैसे किया जाता है। हममें से प्रत्येक को एक भूमिका निभानी है जो दिव्यांगता से प्रभावित बच्चों की भलाई का समर्थन करती है। यह प्रत्येक समुदाय या गांव में माता-पिता, देखभाल करने वालों, स्वास्थ्य कर्मियों और पड़ोसियों की भूमिका है।

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By iamkeshavvvv

प्रकृति रक्षति रक्षिता

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