मैं बिहार राज्य के मधेपुरा जिला का निवासी हूँ।मैं ग्रामीण परिवेश से आता हूँ। मैं उस परिवर्तनकाल से गुजरा हूँ ,जहां समाजिक बदलाव को मैंने काफी नजदीक से महसूस किया है।मैंने बदलाव को देखा है । मैंने उस व्यवस्था को देखा है, जहां सरकारी स्कूल में नीचे बैठ कर पढ़ना हो ,चाहे सड़कें टूटी हुई हो,या बिजली आती ही न हो और स्वास्थ्य व्यवस्था के नाम पर सिर्फ एक ढांचा बना हो। बाहर जाने के बाद यह भी अनुभव करने को मिला, जहाँ बिहार का पर्यावाची पिछड़ापन ,ग़रीबी, और गुंडा राज,जैसे शब्द थे। आगे बढ़ते हुए मैंने समुदाय से जुड़े विषयों पर काफी अध्ययन किया,कई सारे संस्थाओं के साथ काम करने का मौका मिला। समुदाय एवं व्यक्तियों से जुड़े अलग अलग मुद्दों पर मैंने काम किया,साथ हीं समुदाय और उससे जुड़ी बातों को समझा ,चुनौतियों को समझा ,और जरूरतों को जानने की कोशिश की।इस दौरान मैंने काफी कुछ समझा और इस समझ को और आगे ले जाने के लिए मैंने एक फेलोशिप जॉइन किया , जिसका नाम जे एस डब्लू फाउंडेशन फेलोशिप है । इस फेलोशिप से जुड़े हुए मुझे एक महिना हो चुका है । अभी तक का सफर काफी जानकारी भरा रहा है । शुरुआत से हीं इस फेलोशिप का लक्ष्य हमारे सामने था । हमें काफी अनुभवी व्यक्तिओं के द्वारा प्रशिक्षित किया गया। हमने पुणे से अपना सफर शुरू किया जो कि मुंबई स्थित जे एस डब्लू सेंटर पर खत्म हुआ । इस दौरान हमें अलग अलग अनुभवी व्यक्तिओं से सीखने का मौका मिला। हमें एक सिविल सर्वेन्ट से लेकर ग्रामीण विकास में अपना योगदान देने वाले अलग अलग विभागों के सरकारी कर्मचारी और गैर सरकारी कर्मचारी से उनके विभाग के बारे में जानने को मिला ,साथ ही वे किस तरह से अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं ,ये भी जानने को मिला । हमें अन्य सस्थाओं के फ़ेलो से भी मिलने का मौका मिला और उनके सफर और उनकी सीख को समझने का भी मौका मिला ।आगे बढ़ते हुए हमें टाटा के सामाजिक विज्ञान के तुलजापुर स्थित कैंपस में जाने का मौका मिला। इस संस्था की भूमिका ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काफी गहरा रहा है । इस संस्था में हमें ग्रामीण विकास से जुड़ी चीजों को समझने का मौका मिला और ऐसे तरीकों को समझने और अभ्यास करने का मौका मिला जो ग्रामीण विकास के लिए काफी महत्वपूर्ण है । इन सब सीख और समझ को लेकर हमने अपना फेलोशिप का सफर रायगढ़ जिले के डोलवी ग्राम पंचायत से शुरू किया है । यहाँ आए हुए हमें तकरीबन पंद्रह दिन हुए हैं और इस दौरान हमने इस क्षेत्र को जानने की कोशिश की है। यह पूरा क्षेत्र कोंकण कहलाता है । समुद्र से घिरा यह क्षेत्र पठारों ,समतल जमीन,जंगलों और पानी वाले क्षेत्रों से मिलकर बना है । समुद्र का पानी नमकीन होने के कारण ,यह पानी ग्रामीणों के लिए समस्या का कारण है। न पीने के लिए पानी है,और न खेती के लिए । बारिश पे इनकी निर्भरता काफी अधिक है । बारिश न हो तो आपदा जैसी स्थिति पैदा हो सकती है । लेकिन गाँव के लोग कहते हैं, इस साल बारिश अच्छी हुई है । धान ,मूंगफली और मौसमी सब्जी यहाँ के ग्रमीणों की प्रमुख उपज है ।
साथ हीं हमने एक सप्ताह कातकरी जनजाति के क्षेत्र में व्यतीत किया और इस जनजाति को समझने की कोशिश की । इस क्षेत्र में(डोलवी और इसके आस-पास ) कातकरी जनजाति के लगभग आठ गाँव है। जिनका वास यहाँ के पठारी भूभाग के जंगलों में है ।कातकरी एक भारतीय आदिम जनजाति है जो ज़्यादातर महराष्ट्र राज्य में निवास करती है। कातकरी जनजाति मुख्य रूप से रायगढ़ और महाराष्ट्र के पालघर, रत्नागिरी और ठाणे जिलों के साथ-साथ गुजरात के कुछ स्थानों में निवास करती हैं।कातकरी नाम वन-आधारित गतिविधि से लिया गया है – खैर के पेड़ (बबूल केचु) से कत्था (कथा) बनाना और बेचना । ये आमतौर पर कातकरी भाषा बोलते हैं जो मराठी और कोंकणी भाषा का मिला जुला रूप है।आज के दौर में कातकरी समुदाय के लोग अपनी आजीविका और आवास के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। कातकरी समुदाय के ज़्यादातर लोग बंधुआ मज़दूर हैं, जिनके पास न तो ज़मीन है और न ही कोई रोज़गार। इनमें से ज़्यादातर लोग महाराष्ट्र के ओद्योगिक इलाकों में मज़दूरी करते हुए भी पाए जाते हैं। कातकरी समुदाय के लोग अपनी रोज़ी रोटी के लिए कई धंधों पर निर्भर हैं, जिसमे लकड़ी और जंगल से निकले हुए अन्य उत्पाद , मछली पकड़ना , और किसानों के खेतों में मज़दूरी करना शामिल है। कातकरी नाम इस जनजाति को देने की वजह उनके द्वारा किया जाने वाला कत्थे का व्यापार था। कातकरी कत्थे के व्यापार किया करते थे। आज़ादी के बाद सरकार द्वारा कत्थे के पेड़ को काटने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । इसके बाद वन विभाग ने इनके द्वारा की जाने वाली झूम कृषि पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। इसकी वजह से कातकरी जनजाति का एक बड़ा हिस्सा जंगल छोड़कर काम की तलाश में बाहर शहरों की और जाने लगे । 1950 की शुरुआत में कातकरी परिवार अपनी पुश्तैनी ज़मीन छोड़कर गाँवों और शहरों में बसना शुरू कर दिया था।
ओद्योगिक क्षेत्र पास होने की वजह से इनको रोजगार मिल जा रहा है,और जिनकी बसाहट दूर थी, वो भी इन क्षेत्रों के करीब आ रहे हैं । इन क्षेत्रों की प्रमुख जरूरतों में से एक पानी है, और उससी जुड़ी समस्या है । कातकरी जनजाति अंग्रेज़ी राज में एक घुमक्कड, जंगलों में रहने वाली जनजाति के रूप में मशहूर थी,जिसे अंग्रेज़ों ने 1871 के अपराधी जनजातीय कानून के तहत रखा हुआ था,लेकिन आजादी के बाद कातकरी को उस श्रेणी से निकाल दिया गया । अगर आज के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो ,अंग्रेजों के द्वारा जो धारणा बनाई गई थी ,वो कातकरी के इस भाग(डोलवी के आस-पास ) में सुनने को नहीं मिली, लेकिन बाकीं के भाग में आज भी उन्हें उसी धारणा का शिकार होना पड़ता है । इन्हें नौकरी पे नहीं रखा जाता ,इन्हें कोई काम नहीं देता ।
कुछ इस तरह मेरे फेलोशिप का अभी तक का सफर रहा है । समुदाय की बात खाने के बिना आधुरी है , अगर मैं खाने की बात करूँ तो ,यहाँ मछली का सेवन अधिक मात्रा में की जाती है ,जिसका हिस्सा मैं भी बन चुका हूँ। मछली मेरे लिए नई बात नहीं है ,लेकिन जिस तरह से यहाँ ये बनता है, वो मेरे लिए एक नया स्वाद है।
इस फेलोशिप के जरिए ,मैं उन समुदाय तक पहुँचने की कोशिश करूंगा जो आज भी हाशिये पे हैं । मैं ऐसे हस्तक्षेप पे काम करने की कोशिश करूंगा जिनसे उनके लिए रास्ता खुले । मेरा लक्ष्य है ,कोई पीछे न छूटे ।