इस साँझ की कहानी कि शुरूवात मेरे JSW Fellowship में सिलेक्शन होने पर हुई। जहां हमे प्रोजेक्ट के लिए इस दुनिया के किसी शहर के पास, किसी गाँव के, किसी कोने में भेजा गया। तीन दिन के इस प्रोजेक्ट में हमने अपने पहले दिन के काम को विराम देते हुए अगले दिन के काम को दोहरा रहे थे। चार दोस्तों की इस सभा में हसी ठिठोली होना ही था। पर मेरे कानों में एक आवाज गूंजे जा रही थी । जिसने आज मेरे चलते हुए कदमों को पुकारा था। किसी ने मेरी पीट थपथपाई तो मैं उन यादों से वापस इस हसी ठिठोली के माहौल में ढ़ल गई।
अगले दिन सब दोपहर अपने-अपने कामों में मशगूल थे|
तब ही किसी को ध्यान आया कि साँझ रात पे अपना पहरा देने आ चुकी है। सबने अपने सामना को समेट अपनी- अपनी chappal की और भागे। सब अफरातफरी में कम्यूनिटी हॉल तक पहुचने की कोशिश कर रहे थे। तब ही मेरे जल्दी जल्दी उठ रहे कदमों से मेरे दिमाग ने बातें बंद करदी। पिछले दिन की यादें मेरे दिमाग में गोते खाने लगी। प्रोजेक्ट के लिए हमने एक सभा लेनी थी। उसमे कुछ चालीस से पचास लोगों को हमने एकजुट किया था। ये सभा लगभग रात को 8 बजे तक खत्म हुई । ये सभा को मेरे सहभागियों ने अगले दिन का न्योता देते हुए खत्म किया। जोकि मुझे इस भाषा का ग्यान नहीं था। तो में सामना समेटने में लगी थी।
जब हॉल खाली हुआ हम सब एक दूसरे से बात करते हुए भार निकले और कुछ देर चले ही थे कि एक आवाज ने हमें पुकारा। पीछे मुड़ते ही एक बुढ़ी सी अम्मा जिनके झुके हुए कंधे, सफेद बाल, गोल चेहरे पे गोल-गोल चश्मा जो गालों की झुर्रियों को छुपा रहा था, मंगलसूत्र, और एक क्रीम कलर की सारी जिसमें गोल्डन बॉर्डर, उस सारी में उलझी हुई अम्मा हमसे कुछ कहना चाह रही थी।
उस बुढ़ी अम्मा ने जो कहा और जो मैने समझा वो व्याख्याएं कुछ एसा था कि:
जिस कुटिया के सामने वो खड़ी थी। वो कुटिया उनकी अपनी थी। उस छोटे से घर में उनके छोटे-छोटे दो पोते और उनके पति रहते थे। उन सब की देखभाल की जिम्मेदारी उन झुके हुए कंधों पे थी। उन के बच्चों ने ना केवल अपने माँ बाप को छोड़ा था। ब्लकि अपने बच्चों को भी इन्हीं के नाजुक कंधों पे डाल गए थे। जिस उम्र में वो खुद एक जिम्मेदारी थी। उस उम्र में उन पर तीन जिम्मेदारियाँ और थी। ये सब बातों को हम समझते उतनी देर में उन्होंने कहाँ बेटा मैं एक गीत गाना चाहती हूँ। कल तुम मुझे गाने दोगे, हम सब के चेहरे पे मानो एक खुशी सी छा गई, हम सब ने मानो एक स्वर में कहाँ बिल्कुल माजी। कल आप ही सभा आरंभ करना।
इन विचारो की धक्का-मुक्की में मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि कब हम हॉल पहुंचे गए थे। सबसे पहले अम्मा आयी उन्होंने सभी के आने का इंतजार किया। सभा भरते ही उन्होंने भजन गाना चालू किया। भजन को सुनते-सुनते में उनकी कहानी में खो गई। में उन झुर्रियों को निहारने ने लगी जिसने इस गोल से चेहरे को जाने क्या-क्या दिखाया है। एक छोटी सी बचीं जब अपने माँ बाबा के घर में खेल कूद रही होगी, जब क्या उसने सोचा होगा कि ये जीवन उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। कहां उनकी शादी होगी, कि उनका पति उन्हें एक सुखी जिंदगी देगा , कि जब वो अपने नन्हें बच्चे को देखेगी और खुश होगी कि ये बच्चा उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। अगर ये उसने सोचा हो तो आज जो उनके साथ हो रहा है, सब उनकी सोच के उल्टा है तो कैसे अपने आप को सांत्वना देती होगी।
मैं उन्हें देख कर काफी प्रभावित हुई, जीवन का सारा संघर्ष देख कर भी जब वो अपने बुढ़ापे में बेसहारा हुई तब भी उन्हें ये जीवन बोझ नहीं लग रहा हैं। वे इस निर्दयता जो उनके बचो ने उनके साथ कि है, उसे भी नादानी मान कर माफ़ कर चुकी है। वे अपने भंवर में फंसे हुए जीवन में एक हरा पता है, जो अपनी पेड़ की टहनि से टूट कर इस तूफान से लड़कर एक धरातल ढूंढ ही लेगा। जहां वो अपने सूखने का और धरती में समा जाने तक सुख और शांति से जी सकेगा।



One reply on “साँझ”
Loved the blog! Well articulated!!!:-)
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